सत्संग का फल
एक था मजदूर। मजदूर तो था, साथ-ही-साथ किसी संत महात्मा का प्यारा भी था। सत्संग का प्रेमी था। उसने शपथ खाई थी! मैं उसी का बोझ उठाऊँगा, उसी की मजदूरी करूँगा, जो सत्संग सुने अथवा मुझे सुनाये. प्रारम्भ में ही यह शर्त रख देता था। जो सहमत होता, उसका काम करता। एक बार कोई सेठ आया तो इस मजदूर ने उसका सामान उठाया और सेठ के साथ वह चलने लगा। जल्दी-जल्दी में शर्त की बात करना भूल गया। आधा रास्ता कट गया तो बात याद आ गई। उसने सामान रख दिया और सेठ से बोला:- “सेठ जी ! मेरा नियम है कि मैं उन्हीं का सामान उठाऊँगा, जो कथा सुनावें या सुनें। अतः आप मुझे सुनाओ या सुनो।
सेठ को जरा जल्दी थी। वह बोला- “तुम ही सुनाओ।” मजदूर के वेश में छुपे हुए संत की वाणी से कथा निकली। मार्ग तय होता गया। सेठ के घर पहुंचे तो सेठ ने मजदूरी के पैसे दे दिये। मजदूर ने पूछा:- “क्यों सेठजी ! सत्संग याद रहा?” “हमने तो कुछ सुना नहीं। हमको तो जल्दी थी और आधे रास्ते में दूसरा कहाँ ढूँढने जाऊँ? इसलिए शर्त मान ली और ऐसे ही ‘हाँ… हूँ…..’ करता आया। हमको तो काम से मतलब था, कथा से नहीं।”भक्त मजदूर ने सोचा कि कैसा अभागा है ! मुफ्त में सत्संग मिल रहा था और सुना नहीं ! यह पापी मनुष्य की पहचान है। उसके मन में तरह-तरह के ख्याल आ रहे थे. अचानक उसने सेठ की ओर देखा और गहरी साँस लेकर कहा:- “सेठ! कल शाम को सात बजे आप सदा के लिए इस दुनिया से विदा हो जाओगे। अगर साढ़े सात बजे तक जीवित रहें तो मेरा सिर कटवा देना।”
जिस ओज से उसने यह बात कही, सुनकर सेठ काँपने लगा। भक्त के पैर पकड़ लिए। भक्त ने कहा:- “सेठ! जब आप यमपुरी में जाएँगे तब आपके पाप और पुण्य का लेखा जोखा होगा, हिसाब देखा जाएगा। आपके जीवन में पाप ज्यादा हैं, पुण्य कम हैं। अभी रास्ते में जो सत्संग सुना, थोड़ा बहुत उसका पुण्य भी होगा। आपसे पूछा जायेगा कि कौन सा फल पहले भोगना है? पाप का या पुण्य का ? तो यमराज के आगे स्वीकार कर लेना कि पाप का फल भोगने को तैयार हूँ पर पुण्य का फल भोगना नहीं है, देखना है। पुण्य का फल भोगने की इच्छा मत रखना। मरकर सेठ पहुँचे यमपुरी में।
चित्रगुप्तजी ने हिसाब पेश किया। यमराज के पूछने पर सेठ ने कहा:- “मैं पुण्य का फल भोगना नहीं चाहता और पाप का फल भोगने से इन्कार नहीं करता। कृपा करके बताइये कि सत्संग के पुण्य का फल क्या होता है? मैं वह देखना चाहता हूँ।”
पुण्य का फल देखने की तो कोई व्यवस्था यमपुरी में नहीं थी। पाप- पुण्य के फल भुगताए जाते हैं, दिखाये नहीं जाते। यमराज को कुछ समझ में नहीं आया। ऐसा मामला तो यमपुरी में पहली बार आया था। यमराज उसे ले गये धर्मराज के पास। धर्मराज भी उलझन में पड़ गये। चित्रगुप्त, यमराज और धर्मराज तीनों सेठ को ले गये। सृष्टि के आदि परमेश्वर के पास । धर्मराज ने पूरा वर्णन किया। परमपिता मंद-मंद मुस्कुराने लगे। और तीनों से बोले:- “ठीक है. जाओ, अपना-अपना काम सँभालो।” सेठ को सामने खड़ा रहने दिया। सेठ बोला:- “प्रभु ! मुझे सत्संग के पुण्य का फल भोगना नहीं है, अपितु देखना है।”
प्रभु बोले:- “चित्रगुप्त, यमराज और धर्मराज जैसे देव आदरसहित तुझे यहाँ ले आये और तू मुझे साक्षात देख रहा है, इससे अधिक और क्या देखना है?”
एक घड़ी आधी घड़ी,आधी में पुनि आध। तुलसी सत्संग साध की, हरे कोटि अपराध।।
जो चार कदम चलकर के सत्संग में जाता है, तो यमराज की भी ताकत नहीं उसे हाथ लगाने की।
सत्संग-श्रवण की महिमा इतनी महान है. सत्संग सुनने से पाप-ताप कम हो जाते हैं। पाप करने की रूचि भी कम हो जाती है।
बल बढ़ता है दुर्बलताएँ दूर होने लगती हैं।
विद्या
गुरु शुश्रूषया विद्या पुष्कलेन् धनेन वा।
अथ वा विद्यया विद्या चतुर्थो न उपलभ्यते॥
विद्या गुरु की सेवा से, पर्याप्त धन देने से अथवा विद्या के आदान-प्रदान से प्राप्त होती है। इसके अतिरिक्त विद्या प्राप्त करने का चौथा तरीका नहीं है ॥