ईश्वर

ईश्वर

एक नन्हा बालक ईश्वर से मिलना चाहता था। वह जानता था कि उसकी यह यात्रा लंबी होगी।

इस कारण उसने अपने बैग में चिप्स के पैकेट और पानी की बोतलें रखीं और यात्रा पर निकल पड़ा।

वह अपने घर से कुछ ही दूर पहुंचा होगा कि उसकी नजर एक बुजुर्ग सज्जन पर पड़ी, जो पार्क में कबूतरों के एक झुंड को देख रहे थे।

वह बालक भी उनके पास जाकर बैठ गया। कुछ देर बाद उसने पानी की बोतल निकालने के लिए अपना बैग खोला।उसे लगा कि वह बुजुर्ग सज्जन भी भूखे हैं, लिहाजा उसने उन्हें कुछ चिप्स दिए। उन्होंने चिप्स लेते हुए बालक की तरफ मुस्कराकर देखा।बालक को बुजुर्ग की मुस्कराहट बेहद भली लगी। वह उसके दीदार एक बार फिर करना चाहता था, सो उसने उन्हें पानी की बोतल भी पेश की।

बुजुर्ग सज्जन ने पानी लेते हुए फिर मुस्कराकर उसकी तरफ देखा। बालक यह देखकर बेहद खुश हुआ। इसके बाद पूरी दोपहर वे साथ-साथ बैठे रहे।बालक उन्हें समय-समय पर पानी और चिप्स देता रहता। बदले में उसे उनकी भोली मुस्कराहट मिलती रही।अब तक शाम होने को आई थी। बालक को भी थकान लगने लगी थी। उसने सोचा कि अब घर चलना चाहिए।

वह उठा और घर की ओर चलने लगा। कुछ कदम चलने के बाद वह ठिठका और पलटकर दौड़ते हुए वृद्ध के पास आया।उसने वृद्ध को अपनी बांहों में भरा। बदले में वृद्ध शख्स ने होंठों पर और भी बड़ी मुस्कराहट लाते हुए उसका आभार प्रकट किया।कुछ देर बाद वह बालक अपने घर पर था। दरवाजा उसकी मां ने खोला और उसके होंठों पर खेलती मुस्कराहट देख पूछ बैठीं, ‘आज तुमने ऐसा क्या किया, जो तुम इतने खुश हो…..?’

बालक ने जवाब दिया, ‘आज मैंने ईश्वर के साथ लंच किया।’ इसके पहले कि मां कुछ और पूछती वह फिर बोला, ‘तुम्हें मालूम है मां….?

उनके जैसी मुस्कराहट मैंने आज तक नहीं देखी।’ उधर, वह बुजुर्ग सज्जन भी वापस अपने घर पहुंचे, जहां दरवाजा उनके बेटे ने खोला।

बेटा अपने पिता के चेहरे पर शांति और संतुष्टि के भाव देख पूछ बैठा, ‘आज आपने ऐसा क्या किया है, जो आप इतने खुश लग रहे हैं।’

इस पर उन्होंने जवाब दिया, ‘मैंने पार्क में ईश्वर के साथ चिप्स खाए।’ इससे पहले की बेटा कुछ और कहता, वह आगे बोले, ‘तुम्हें मालूम है….?

मेरी अपेक्षा के अनुरूप ईश्वर कहीं छोटी उम्र के हैं।’

इस किस्से का निष्कर्ष यह निकलता है कि मुस्कराने में अपने पल्ले से कुछ भी खर्च नहीं होता है।

इसके उलट जिसकी तरफ मुस्कराकर देखा जाता है, वह इससे और समृद्ध ही महसूस करता है।

मुस्कराहट खरीदी नहीं जा सकती है, उधार नहीं मांगी जा सकती है और इसे चोरी नहीं किया जा सकता है।

इसका तब तक कोई मूल्य नहीं है, जब तक कि किसी को मुस्कराकर देखा नहीं जाए। इसके बावजूद कुछ लोग मुस्कराने में थकान का अनुभव करते हैं।

वे इसमें कंजूसी बरतते हैं। मुस्कराने के महत्व को समझते हुए मुस्कराएं। किसी को इससे ज्यादा और क्या चाहिए कि कोई उसे देखकर मुस्कराए।

किसी की तरफ मुस्कराकर देखने से हमारा कुछ घटता नहीं है, बल्कि संतुष्टि और प्रसन्नता ही अनुभव होती है……………………..

परमेश्वर

न देवो विद्यते काष्ठे न पाषाणे न मृण्मये।

भावे हि विद्यते देवस्तस्माद् भावो हि कारणम्॥

न ही लकड़ी या पत्थर की मूर्ति में, न ही मिट्टी में अपितु परमेश्वर का निवास तो भावों में यानि हृदय में होता है। इसलिये जहां भाव होता है परमेश्वर वहीं प्रकट हो जाते हैं।

सत्संग का फल

सत्संग का फल

एक था मजदूर। मजदूर तो था, साथ-ही-साथ किसी संत महात्मा का प्यारा भी था। सत्संग का प्रेमी था। उसने शपथ खाई थी! मैं उसी का बोझ उठाऊँगा, उसी की मजदूरी करूँगा, जो सत्संग सुने अथवा मुझे सुनाये. प्रारम्भ में ही यह शर्त रख देता था। जो सहमत होता, उसका काम करता। एक बार कोई सेठ आया तो इस मजदूर ने उसका सामान उठाया और सेठ के साथ वह चलने लगा। जल्दी-जल्दी में शर्त की बात करना भूल गया। आधा रास्ता कट गया तो बात याद आ गई। उसने सामान रख दिया और सेठ से बोला:- “सेठ जी ! मेरा नियम है कि मैं उन्हीं का सामान उठाऊँगा, जो कथा सुनावें या सुनें। अतः आप मुझे सुनाओ या सुनो।

सेठ को जरा जल्दी थी। वह बोला- “तुम ही सुनाओ।” मजदूर के वेश में छुपे हुए संत की वाणी से कथा निकली। मार्ग तय होता गया। सेठ के घर पहुंचे तो सेठ ने मजदूरी के पैसे दे दिये। मजदूर ने पूछा:- “क्यों सेठजी ! सत्संग याद रहा?” “हमने तो कुछ सुना नहीं। हमको तो जल्दी थी और आधे रास्ते में दूसरा कहाँ ढूँढने जाऊँ? इसलिए शर्त मान ली और ऐसे ही ‘हाँ… हूँ…..’ करता आया। हमको तो काम से मतलब था, कथा से नहीं।”भक्त मजदूर ने सोचा कि कैसा अभागा है ! मुफ्त में सत्संग मिल रहा था और सुना नहीं ! यह पापी मनुष्य की पहचान है। उसके मन में तरह-तरह के ख्याल आ रहे थे. अचानक उसने सेठ की ओर देखा और गहरी साँस लेकर कहा:- “सेठ! कल शाम को सात बजे आप सदा के लिए इस दुनिया से विदा हो जाओगे। अगर साढ़े सात बजे तक जीवित रहें तो मेरा सिर कटवा देना।”

जिस ओज से उसने यह बात कही, सुनकर सेठ काँपने लगा। भक्त के पैर पकड़ लिए। भक्त ने कहा:- “सेठ! जब आप यमपुरी में जाएँगे तब आपके पाप और पुण्य का लेखा जोखा होगा, हिसाब देखा जाएगा। आपके जीवन में पाप ज्यादा हैं, पुण्य कम हैं। अभी रास्ते में जो सत्संग सुना, थोड़ा बहुत उसका पुण्य भी होगा। आपसे पूछा जायेगा कि कौन सा फल पहले भोगना है? पाप का या पुण्य का ? तो यमराज के आगे स्वीकार कर लेना कि पाप का फल भोगने को तैयार हूँ पर पुण्य का फल भोगना नहीं है, देखना है। पुण्य का फल भोगने की इच्छा मत रखना। मरकर सेठ पहुँचे यमपुरी में।

चित्रगुप्तजी ने हिसाब पेश किया। यमराज के पूछने पर सेठ ने कहा:- “मैं पुण्य का फल भोगना नहीं चाहता और पाप का फल भोगने से इन्कार नहीं करता। कृपा करके बताइये कि सत्संग के पुण्य का फल क्या होता है? मैं वह देखना चाहता हूँ।”

पुण्य का फल देखने की तो कोई व्यवस्था यमपुरी में नहीं थी। पाप- पुण्य के फल भुगताए जाते हैं, दिखाये नहीं जाते। यमराज को कुछ समझ में नहीं आया। ऐसा मामला तो यमपुरी में पहली बार आया था। यमराज उसे ले गये धर्मराज के पास। धर्मराज भी उलझन में पड़ गये। चित्रगुप्त, यमराज और धर्मराज तीनों सेठ को ले गये। सृष्टि के आदि परमेश्वर के पास । धर्मराज ने पूरा वर्णन किया। परमपिता मंद-मंद मुस्कुराने लगे। और तीनों से बोले:- “ठीक है. जाओ, अपना-अपना काम सँभालो।” सेठ को सामने खड़ा रहने दिया। सेठ बोला:- “प्रभु ! मुझे सत्संग के पुण्य का फल भोगना नहीं है, अपितु देखना है।”

प्रभु बोले:- “चित्रगुप्त, यमराज और धर्मराज जैसे देव आदरसहित तुझे यहाँ ले आये और तू मुझे साक्षात देख रहा है, इससे अधिक और क्या देखना है?”

एक घड़ी आधी घड़ी,आधी में पुनि आध। तुलसी सत्संग साध की, हरे कोटि अपराध।।

जो चार कदम चलकर के सत्संग में जाता है, तो यमराज की भी ताकत नहीं उसे हाथ लगाने की।

सत्संग-श्रवण की महिमा इतनी महान है. सत्संग सुनने से पाप-ताप कम हो जाते हैं। पाप करने की रूचि भी कम हो जाती है।

बल बढ़ता है दुर्बलताएँ दूर होने लगती हैं।

विद्या

गुरु शुश्रूषया विद्या पुष्कलेन् धनेन वा।

अथ वा विद्यया विद्या चतुर्थो न उपलभ्यते॥

विद्या गुरु की सेवा से, पर्याप्त धन देने से अथवा विद्या के आदान-प्रदान से प्राप्त होती है। इसके अतिरिक्त विद्या प्राप्त करने का चौथा तरीका नहीं है ॥

उठिये ब्रह्मर्षि

“उठिये ब्रह्मर्षि”

(आधुनिक संदर्भों के लिये सटीक कथा।)

राजा विश्वामित्र सेना के साथ आखेट के लिए निकले थे। वन में घूमते हुए वे जब महर्षि वशिष्ठ के आश्रम के समीप पहुंच गए तब महर्षि ने उनका राजोचित आथित्य किया। आथित्य से विश्वामित्र आश्चर्यचकित रह गए तब उन्हें देखा की कामधेनु  नन्दिनी उस आथित्य के पीछे विद्यमान हैं, तब उन्होंने उस नंदिनी को लेने की कोशिश की ।अनेको योद्धाओं के साथ में युद्ध को तत्पर हो गए किंतु वशिष्ठ के धर्म दंड से सारे के सारे योद्धा मारे गए ।सारे अस्त्र खत्म होने के पश्चात विश्वामित्र को यह संकल्प हुआ कि वशिष्ठ के सारे दिव्यास्त्र मुझे प्राप्त करने हैं और वह कब प्राप्त होंगे जबकि मैं ब्राह्मण हो जाउंगा ।इस हेतु सैकड़ों वर्षो के उग्र तप से ब्रह्माजी ने प्रसन्न होकर के विश्वामित्र से कहा कि” वशिष्ठ आपको ब्रम्हर्षि मान ले तो आप ब्राह्मण हो जाएंगे।” विश्वामित्र के लिए वशिष्ठ से प्रार्थना करना तो बड़ा अपमानजनक था तब उन्होंने क्रोध में आकर के एक राक्षस को प्रेरित किया और वशिष्ठ के सौ पुत्र मरवा डाले। विश्वामित्र जी एक अलग ही हट पर उतर आए, तपोबल से उन्होंने नवीन सृष्टि प्रारंभ कर दी जिसके ब्रह्मा वे स्वयं बनना चाहते थे, अंत में ब्रह्मा जी ने आकर उन्हे रोका तब जाकर वो रुके ।

कोई उपाय सफल ना होता देखकर एक दिन विश्वामित्र जी ने वशिष्ठ जी को मार डालने का संकल्प लिया ।अस्त्र शस्त्र से सज्जित होकर रात्रि में छिपकर वशिष्ठ के आश्रम में गुप्त रुप से पहुंच गए ।

चांदनी रात थी , महर्षि वशिष्ठ अपनी पत्नी अरुंधति के साथ बैठे  चर्चा कर रहे थे ।कहने लगे कि यह चन्द्र की निर्मल ज्योत ऐसी लगती है मानो विश्वामित्र की तपस्या  चारों दिशाओं में आलोकित हो रही है।

अरुंधती ने कहा कि आप विश्वामित्र की तपस्या की इतनी प्रशंसा करते हैं तो उन्हें ब्रम्हर्षि क्यों नहीं मान लेते हैं।

वशिष्ठजी ने कहा कि मान लेने में अभी कुछ शेष है और अगर मैंने उन्होंने उन्हें ब्रम्हर्षि कह दिया तो उनके ब्रम्हर्षि होने की सारी संभावनाएं समाप्त हो जाएगी ।

विश्वामित्रजी यह वार्ता सुनकर तो जैसे सांप सूंघ गया।

उनके ह्रदय ने धिक्कारा की जिसे तू मारने आया है, जिससे रात दिन द्वेष करता है वह कौन है यह देख ।वह महापुरुष अपने सौं पुत्रों के हत्यारे की प्रशंसा एकांत में अपनी पत्नी से कर रहा है ।

विश्वामित्र ने सारे शस्त्र फेंक दिए ,वशिष्ठ के चरणों में गिर पड़े, उनका अहंकार समाप्त हो गया और तब महर्षि वशिष्ठ ने उनको अपने दोनों हाथों से उठाकर कहा -“उठिए ब्रम्हर्षि”

विद्वान

विद्वत्वं च नृपत्वं च न एव तुल्ये कदाचन्।

स्वदेशे पूज्यते राजा विद्वान् सर्वत्र पूज्यते॥

विद्वान और राज्य अतुलनीय हैं, राजा को तो अपने राज्य में ही सम्मान मिलता है पर विद्वान का सर्वत्र सम्मान होता है ॥